बस यही मेरी सज़ा, मेरा नसीब भी है
मेरा साया ही मेरा रकीब भी है
मुझे न समझाइये इबादत के मानी
वो ही दुआ मेरी, वो ही सलीब भी है
कुछ ऐसा रिश्ता रहा दरम्यान तेरे-मेरे
तू ही दूर सब से, तू ही करीब भी है
अजीब शख्स है, जो आईने से झांकता है
पूरा वहशी सही, थोड़ा अदीब भी है
हरेक लिहाज से तू बेहतर सही मुझसे
बिना मेरे, तू थोड़ा ग़रीब भी है
3 comments:
bahut sundar kavita hai ...."कुछ ऐसा रिश्ता रहा दरम्यान तेरे-मेरेतू ही दूर सब से, तू ही करीब भी है" beautiful line love it ...
thanks for sharing :))
Shruti...
'हरेक लिहाज से तू बेहतर सही मुझसे
बिना मेरे, तू थोड़ा ग़रीब भी है' -
वाह!
न जाने कैसे इस ब्लॉग से इतने दूर रहे.
बहुत बढ़िया बात, बहुत खूबसूरत अंदाज़!
और घुमते हैं और ढूंडते हैं!
इस ग़ज़ल से मुखातिब करने का शुक्रिया!
wah adee :)
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