Monday, February 14, 2011

कहानियों की नगरी


बहुत बड़ा शहर है दिल्ली, और जितने लोग, उतनी कहानियां! अपनी रोजाना की ज़िन्दगी में तो हम एक set pattern follow करते हैं, सुबह घर से उठते हैं, काम पर जाते हैं, उन्ही पहले मिले-मिलाये लोगों से मिलते हैं, घर वापस आ जाते हैं. पर अगर थोडा सा दायरा बड़ा कर लें हम अपना, रुक कर रास्तें में अगर देखें आस-पास तो पाएंगे के चेहरों के भीतर कितनी कहानियां छुपी है इस शहर में.

कहानियों के इस शहर से चुन कर कुछ आधे-अधूरे व्यक्ति-चरित्र पेश करने की मेरी ये कोशिश उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आयेगी. किरदार बहुत हैं, और मैं कहानी के सूत्रधार की तरह सबसे जुड़ा रहूँगा, और हम सबको बांधे रहेगी ये महानायिका, मेरी, आपकी दिल्ली.

पहली कहानी - नानी

मेरी पहली कहानी एक बूढी नानी की है, जो दिल्ली के सैकड़ों मोहल्लों की हजारों दादी-नानियों की तरह बेनाम है. उन्हें सिर्फ अम्मा के नाम से जाना जाता है, रास्ते में दिखने पर पाँव छू लिए जाते हैं और फिर भुला दिया जाता है. sunday के दिन ऐसी ही एक नानी ने अपने घर से ऊपर वाली मंजिल में रहने वाले दो लड़कों से उनकी छत पर रहने की इजाज़त मांगी!

नानी की भाषा थोड़ी अबूझ है, वो दोनों सिर्फ इतना समझे के समधियाने से कुछ लोग उनके यहाँ रहने आ रहे हैं तो अपनी बेटी के घर रहने वाली वो नानी अपने ही घर में नहीं रह पायेगी. अब जब तक वो लोग बेटी के घर में रहेंगे, नानी छत पर अपनी खाट डाल के रहेगी, वहीँ अपना चूल्हा-चौका करेगी और अपने पंछियों को दाना डालेगी. बस सुबह नहाने-धोने के लिए वो उन दोनों लड़कों से उनका toilet इस्तेमाल करने की इजाज़त मांग रही थी. आपको क्या लगता है, मना कर पाएंगे वो नानी को?

नानी को अपने पंछियों से बड़ा प्यार है. रोह सुबह मूंह-अँधेरे उठ कर, छत पर दाना दाल कर आती है. और उन्ही पंछियों की वजह से छत पर रहना मंजूर है, पर किसी रिश्तेदार के यहाँ जाना नहीं! कहती है, जिस दिन मेरे पति की मौत हुयी थी, उस दिन भी मैं ऊपर पंछियों को दाना दाल कर आई थी और उनसे माफ़ी मांगी थी, "अब तो घर का खर्चा चलाने वाला चला गया, अब सेवा न कर पाऊँ तो माफ़ कर देना!"

ऐसी नानी को भला वो दोनों कैसे मना कर पाते?

4 comments:

Apoyando said...

This is so very true!
Stories happen, every day, every second. We just need to 'stop and stare' .

Unknown said...

बहुत ही मार्मिक दिल को छु लेने वाली कहानी है ...कभी कभी सोचती हू कि क्या इंसानियत इतनी नीचे गिर गई है कि हम अपने बड़े बुज़ुर्ग को उचित सम्मान कि ज़िन्दगी भी बसर नहीं करने देते

श्रुति मेहेंदले

Aparna Mudi said...

traffic lights aur zebra crossings ke alava aajke bhagte daur mein chehre dekhne ka kisi ko time nahi milta. kabhi kabhi muh dekh liya jaat hai, pension check lekar phir mahine bhar ko us taraf nahi muda jaata.

kabhi kabhi lagta hai, traffic jams mein ghanto phasi rahu aur chehre dekhu, kahaniya banau teri tarah... har kisi ke liye ek kahani.

kuch naniya jinhe sirf amma ke naam se jaana jata hai, kuchh bachhe jinhe sirf chhotu kehte hain... kuchh fakir, jinhe pagal kehte hain. aur kuchh kavi, jinhe fakir kehte hain...
teri yeh kahani achhi hai...
likhta jaa... kabhi na kabhi to teri naukri chhudva ke sirf ghar baithe likhvaungi... bina internet access ke...

Lata S Singh said...

Ahoy Adee! cursing self for replying pretty pretty much late of your reply on my post. But then, I mumbled the old saying, better late than never. :)

Now, coming to your post, such truth. Loved the way, you narrated it.

I salutes to the true-blue-story-in-every-moment-delhi-spirit.

P.S.: your this post earned a lifetime fangirl, a follower!

dreamt before

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