Wednesday, July 13, 2011

एक और कविता

रस्सी से बंधी हुयी
बोझ में दबी हुयी
बुझी आँखों से देखती
दुकानें सजी हुयी

झुलसती गर्मी में
पानी को तरसती
जनवरी के जाड़े में
नंगे बदन ठिठुरती

दिन भर भागती
सड़कों की ख़ाक छानती
सपनों की तलाश में
रात भर जागती

एक और कविता भी है
जो हमें दिखाई नहीं देती
या दिखाई दे, तो भी
मूंह फेर लेते हैं हम

जिंदा रहने की दौड़ में
थोडा जीत जाते हैं हम

2 comments:

ADITI said...

जिंदा रहने की दौड़ में bohot kuch khote bhi hain hum... :)

Arti Honrao said...

Nice!
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